Shaurya News India
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मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के आखिरी के दिनों में जो कदम उठाए गए, वह अतिवादी थे। एजेंसियों के ताबड़तोड़ छापों की बात हो या किसी मुख्यमंत्री के जेल भेजने की… लोगों के मन में धारणा तो बनने लगी थी कि ऐसे में तो ये कुछ भी कर देंगे…

 

भाजपा को सपोर्ट करने वाले भी कहने लगे थे- यह ठीक नहीं है…। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर तीखी टिप्पणी की।यूपी के वोटर्स ने ज्यादातर सीटों पर सबक सिखाया है। जिन्हें हरा दिया वहां तो स्पष्ट सबक है ही लेकिन जो जीत गए हैं, वहां भी पिछली बार से जीत का अंतर बहुत कम हो गया। यानी यह संकेत दे दिया है कि खबरदार… जिता रहे हैं लेकिन आगे से ख्याल रखिएगा…!

 


इस हार में भाजपा नेताओं की हल्की भाषा और टीका-टिप्पणी ने भी तड़का लगाया। अमेठी में स्मृति ईरानी का जो रवैया रहा, इसे कौन ठीक कहेगा। उन्होंने मंच से प्रियंका की नकल की, वोटर को शायद वह अच्छी नहीं लगी और उन्हें बुरी तरह हरा दिया।

 


इलेक्शन कैंपेनिंग की शुरुआत ठीक हुई थी, लग रहा था भाजपा विकास, राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा और मोदी के व्यक्तित्व के दम पर वोट मांगेगी, लेकिन तीसरा-चौथा चरण आते-आते हिंदू-मुस्लिम की बातें ज्यादा होने लगीं।

 


अब बात अयोध्या की। भाजपा अयोध्या भी हार गई… इसे क्या कहेंगे…। जिस अयोध्या के दम पर भाजपा ने पूरे देश में जीत की लकीर खींची थी, वहां भी हार झेलनी पड़ी। यह भी सबक है। संगठन को वोटरों ने बता दिया- हम किसी को भी बर्दाश्त नहीं करेंगे। पार्टी ने यहां तीसरी बार लल्लू सिंह को टिकट दिया था, जिनकी उम्मीदवारी का बहुत विरोध हो रहा था।

 


भला हो मेरठ के वोटरों का, शुरुआती झटके देने के बाद आखिर उन्होंने रामानंद सागर के ‘राम’ को जिता दिया।
यूपी में सपा का तो जैसे नया उदय हुआ है।

 

 

यह इसलिए कि समाजवादी पार्टी के इतिहास में पहली बार सबसे ज्यादा सीटें और वोट शेयर मिला है। अब समझ में आ रहा है कि आखिर अखिलेश की रैलियों में युवाओं का इतना हुड़दंग क्यों था।
उन्हें शायद उम्मीद थी कि ये वो आदमी है जो मेरी किस्मत बदल सकता है…

 

 

मुझे काम दे सकता है, नौकरी दे सकता है। अखिलेश ने अपने कैंपेन में ज्यादातर महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे पर ही भाजपा सरकार को घेरा। केंद्र की नई सरकार और राज्य की सरकार को अब इसे समझना पड़ेगा…बगैर देरी किए इस दिशा में ठोस काम भी करना पड़ेगा।

 


इस रिजल्ट ने यह भी साबित कर दिया है कि यहां के लोग गंगा-जमुनी तहजीब को कभी छोड़ने वाले नहीं हैं। चुनाव के दौरान इन्हें बांटने की कोशिश देखने को मिली थी। हर बार धुव्रीकरण का फायदा भाजपा को मिलता रहा है, लेकिन इस बार मुस्लिमों ने समीकरण बिगाड़ दिए। यूपी में मुस्लिमों ने तय कर लिया था कि वोट उसी कैंडिडेट को देना है जो जीत रहा है, उसे नहीं जो वोट काटने के लिए खड़ा किया गया है।

 

 


अब आगे क्या… दबाव बना रहना चाहिए…। असर दिखने भी लगा है…सहयोगी दल जो अब तक किसी कोने-कुचाले में पड़े थे, उनकी पूछ-परख होने लगी है। धीरे-धीरे उनकी आवभगत भी होगी।
मोदी के साथ योगी की लीडरशिप पर भी सवाल उठेगा। नई लीडरशिप की तरफ पार्टियों को जाना पड़ेगा। जैसा कि अखिलेश ने किया। सपा के 67 में से 10 कैंडिडेट तो 40 साल से कम उम्र के उतारे थे। भाजपा में अब व्यक्ति नहीं संगठन को फिर आगे किया जाएगा।

 


काम करने के तौर-तरीकों में बदलाव भी देखने को मिलेंगे। यूपी सरकार पर भले इस हार का कोई असर नहीं पड़े लेकिन आगे की दिशा जरूर बदलेगी। सरकार के कामकाज के तरीके बदलेंगे, व्यवहार और बोलचाल का अंदाज भी बदलेगा… यह जरूरी भी था। भाषणों में कटुता कम होगी। फिर से सामंजस्य और सौहार्द की बातें होंगी

 

 

 

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