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गोरखपुर आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले कार्यक्रम में 'अपने मेहनत के बलबूते सुख क साज सजावल जाई, पंचों जय जवान- जय किसान' जैसी वाणी से परिचित लोगों के बीच से यह वाणी खामोश हो गयी। उनके स्वर की गूंज दशकों तक खेत- खलिहान, चौपाल और गांव की
पगडंडियों तक सुनाई देती थी। साथ ही गोरखपुर से प्रकाशित राष्ट्रीय सहारा में 'बेंगुची चलल ठोकावे नाल' स्तंभ भी पाठकों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ था। उनका जीवन भोजपुरी
भाषा के लिए समर्पित था। उनकी यादें इस तरह है कि- 'तुम आके लौट गये फिर भी हो यहीं मौजूद, तुम्हारे जिस्म की खुश्बू मेरे मकान में है'। उनकी वाणी और उनकी लेखनी हमेशा लोगों को प्रेरित करती रहेगी।