बलिदान को उत्सुक राजगुरु जी...लोग धन पद या प्रतिष्ठा प्राप्ति के लिए एक दूसरे से होड़ करते हैं पर क्रांतिवीर राजगुरु सदा इस होड़ में रहते थे कि किसी भी खतरनाक काम का मौका भगतसिंह से पहले उन्हें मिलना चाहिए...हरि नारायण और श्रीमती पार्वतीबाई के पुत्र शिवराम हरि राजगुरु का जन्म 24 अगस्त 1908 को पुणे के पास खेड़ा (वर्तमान राजगुरु नगर) में हुआ था..
.उनके एक पूर्वज पंडित कचेश्वर को छत्रपति शिवाजी के प्रपौत्र साहू जी ने राजगुरु का पद दिया था तब से इस परिवार में यह नाम लगने लगा...छह वर्ष की अवस्था में राजगुरु के पिताजी का देहांत हो गया पढ़ाई की बजाय खेलकूद में अधिक रुचि लेने से उनके भाई नाराज हो गये इस पर राजगुरु ने घर छोड़ दिया
और कई दिन इधर-उधर घूमते हुए काशी आकर संस्कृत पढ़ने लगे भोजन और आवास के बदले उन्हें अपने अध्यापक के घरेलू काम करने पड़ते थे एक दिन उस अध्यापक से भी झगड़ा हो गया और पढ़ाई छोड़कर वे एक प्राथमिक शाला में व्यायाम सिखाने लगे...यहां उनका परिचय स्वदेश साप्ताहिक गोरखपुर के सह सम्पादक मुनीश अवस्थी से हुआ कुछ ही समय में वे क्रांतिकारी दल के विश्वस्त सदस्य बन गये...जब दल की ओर से दिल्ली में एक व्यक्ति को मारने का निश्चय हुआ तो इस काम में राजगुरु को भी लगाया गया
राजगुरु इसके लिए इतने उतावले थे कि उन्होंने रात के अंधेरे में किसी और व्यक्ति को ही मार दिया...राजगुरु मस्त स्वभाव के युवक थे उन्हें सोने का बहुत शौक था एक बार उन्हें एक अभियान के लिए कानपुर के छात्रावास में 15 दिन रुकना पड़ा वे 15 दिन उन्होंने रजाई में सोकर ही गुजारे राजगुरु को यह मलाल था कि भगतसिंह बहुत सुंदर है
जबकि उनका अपना रंग सांवला है इसलिए वह हर सुंदर वस्तु से प्यार करते थे...यहां तक कि सांडर्स को मारने के बाद जब सब कमरे पर आये तो राजगुरु ने सांडर्स की सुंदरता की प्रशंसा की...भगतसिंह से आगे निकलने की होड़ में राजगुरु ने सबसे पहले सांडर्स पर गोली चलाई थी...लाहौर से निकलतेे समय सूटधारी अफसर बने भगतसिंह के साथ हाथ में बक्सा और सिर पर होलडाल लेकर नौकर के वेष में राजगुरु ही चले थे...
इसके बाद वे महाराष्ट्र आ गये संघ के संस्थापक डाँ हेडगेवार जी ने अपने एक कार्यकर्ता के फार्म हाउस पर उनके रहने की व्यवस्था की जब दिल्ली की असेम्बली में बम फेंकने का निश्चय हुआ तो राजगुरु ने चंद्रशेखर आजाद से आग्रह किया कि भगतसिंह के साथ उसे भेजा जाए पर उन्हें इसकी अनुमति नहीं मिली इससे वे वापस पुणे आ गये...राजगुरु स्वभाव से कुछ वाचाल थे
पुणे में उन्होंने कई लोगों से सांडर्स वध की चर्चा कर दी उनके पास कुछ शस्त्र भी थे क्रांति समर्थक एक सम्पादक की शवयात्रा में उन्होंने उत्साह में आकर कुछ नारे भी लगा दिये इससे वे गुप्तचरों की निगाह में आ गये पुणे में उन्होंने एक अंग्रेज अधिकारी को मारने का प्रयास किया पर दूरी के कारण सफलता नहीं मिली...
इसके अगले ही दिन उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया तथा सांडर्स वध का मुकदमा चलाकर मृत्यु दंड घोषित किया गया 23 मार्च 1931 को भगतसिंह और सुखदेव के साथ वे भी फांसी पर चढ़ गये मरते हुए उन्हें यह संतोष रहा कि बलिदान प्रतिस्पर्धा में वे भगतसिंह से पीछे नहीं रहे...