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वाराणसीः जातिवाद और आध्यात्मिकता के खिलाफ काम करने वाले संत शिरोमणि कवि रविदास का जन्म माघ पूर्णिमा को 1376 ईस्वी को उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर के पास सीर गोबर्धनपुर गांव में रविवार को हुआ था जिसके कारण इनका नाम रविदास रखा गया। इनकी माता का नाम कर्मा देवी (कलसा) तथा पिता का नाम संतोख दास (रग्घु) था। उनके दादा का नाम श्री कालूराम जबकि दादी का नाम श्रीमती लखपती था। इनकी पत्नी श्रीमती लोनाजी से एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम विजय दास था। पंजाब में इन्हें रविदास कहा जाता हैं जबकि उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान में इन्हें रैदास के नाम से ही जाना जाता है। गुजरात और महाराष्ट्र के लोग 'रोहिदास' और बंगाल के लोग उन्हें ‘रुइदास’ कहते हैं। कई पुरानी पांडुलिपियों में उन्हें रायादास, रेदास, रेमदास और रौदास के नाम से भी जाना गया है।

जातिवाद और आध्यात्मिकता के खिलाफ काम करने वाले संत शिरोमणि कवि रविदास का जन्म माघ पूर्णिमा को 1376 ईस्वी को उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर के पास सीर गोबर्धनपुर गांव में रविवार को हुआ था जिसके कारण इनका नाम रविदास रखा गया। इनकी माता का नाम कर्मा देवी (कलसा) तथा पिता का नाम संतोख दास (रग्घु) था। उनके दादा का नाम श्री कालूराम जबकि दादी का नाम श्रीमती लखपती था। इनकी पत्नी श्रीमती लोनाजी से एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम विजय दास था। पंजाब में इन्हें रविदास कहा जाता हैं जबकि उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान में इन्हें रैदास के नाम से ही जाना जाता है। गुजरात और महाराष्ट्र के लोग 'रोहिदास' और बंगाल के लोग उन्हें ‘रुइदास’ कहते हैं। कई पुरानी पांडुलिपियों में उन्हें रायादास, रेदास, रेमदास और रौदास के नाम से भी जाना गया है।

बचपन में रविदास जी अपने गुरु पंडित शारदा नन्द की पाठशाला में शिक्षा लेने जाया करते थे। उन दिनों जातपात का बहुत प्रचलन था जिसके कारण कुछ समय बाद ऊँची जाति वालों ने उनका पाठशाला में आना बंद करवा दिया था। यह बहुत ही होनहार और पढ़नें में बहुत तेज थे। पंडित शारदा नन्द जी ने रविदास जी की प्रतिभा को जान लिया था और वे समाज की उंच नीच बातों को नहीं मानते थे। उनका मानना था कि रविदास भगवान द्वारा भेजा हुआ एक बच्चा है। जिसके बाद पंडित शारदा नन्द जी ने रविदास जी को अपनी व्यक्तिगत् पाठशाला में शिक्षा देना शुरू कर दिया। वे एक बहुत प्रतिभाशाली और होनहार छात्र थे। इनके गुरु जितना उन्हें पढ़ाते थे, उससे ज्यादा वे अपनी समझ से शिक्षा गृहण कर लेते थे। शारदा नन्द जी रविदास जी से बहुत प्रभावित रहते थे। इनके आचरण और प्रतिभा को देख वे सोचा करते थे, कि रविदास एक अच्छा आध्यात्मिक गुरु और महान समाज सुधारक बनेगा।

रविदास जी के साथ पाठशाला में पंडित शारदा नन्द जी का बेटा भी पढ़ता था, वे दोनों अच्छे मित्र थे। एक बार दोनों छुपन छुपाई का खेल रहे थे, 1-2 बार खेलने के बाद रात हो गई लेकिन मन नहीं भरा। इससे उन लोगों ने अगले दिन खेलने की बात कही। दुसरे दिन सुबह रविदास जी खेलने पहुँचे तो देखा कि वो मित्र नहीं आया है। तब वो उसके घर जाते है, वहां जाकर पता चलता है कि रात को उसके मित्र की मृत्यु हो गई है। ये सुन रविदास सुन्न पड़ जाते है, तब उनके गुरु शारदा नन्द जी उन्हें मृत मित्र के पास ले जाते है। रविदास जी को बचपन से ही अलौकिक शक्तियां मिली हुई थी, वे अपने मित्र से कहते है कि ये सोने का समय नहीं है, उठो और मेरे साथ खेलो। ये सुनते ही उनका मृत दोस्त खड़ा हो जाता है और रविदास उसे साथ लेकर खेलने निकल जाते हैं। ये देख वहां मौजूद हर कोई अचंभित हो जाते है।

रविदास जी जाति प्रथा के उन्मूलन में प्रयास करने के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने भक्ति आंदोलन में भी योगदान दिया है, और कबीर जी के अच्छे दोस्त के रूप में पहचाने जाते हैं। रैदास पंथ का पालन करने वाले लोगों में रविदास जयंती का एक विशेष महत्व है। संत रविदासजी बहुत ही दयालु और दानवीर थे। संत रविदास ने अपने दोहों व पदों के माध्यम से समाज में जातिगत भेदभाव को दूर कर सामाजिक एकता पर बल दिया और मानवतावादी मूल्यों की नींव रखी। 

रविदासजी चमार कुल से होने के कारण वे जूते बनाते थे। रविदास जी के पिता मरे हुए जानवरों की खाल निकालकर उससे चमड़ा बनाते और फिर उसकी चप्पल बनाते थे। इनका जूते बनाने और सुधारने का काम हुआ करता था। ऐसा करने में उन्हें बहुत खुशी मिलती थी और वे पूरी लगन तथा परिश्रम से अपना कार्य करते थे। रविदास जी बचपन से ही बहुत बहादुर और भगवान् को बहुत मानने वाले थे। रविदास जी जैसे जैसे बड़े होते जाते है, भगवान राम के रूप के प्रति उनकी भक्ति बढ़ती जाती है। वे हमेशा राम, रघुनाथ, राजाराम चन्द्र, कृष्णा, हरी, गोविन्द आदि शब्द उपयोग करते थे, जिससे उनकी धार्मिक होने का प्रमाण मिलता था।

रविदास जी के पिता की मौत के बाद इन्होंने अपने पड़ोसियों से मदद मांगी, ताकि वे गंगा के तट पर अपने पिता का अंतिम संस्कार कर सकें। ब्राह्मण इसके खिलाफ थे, क्यूंकि वे गंगा जी में स्नान किया करते थे, और शुद्र का अंतिम संस्कार उसमें होने से वो प्रदूषित हो जाती। उस समय रविदास जी बहुत दुखी और असहाय महसूस कर रहे थे, लेकिन इस घड़ी में भी उन्होंने अपना संयम नहीं खोया और भगवान से अपने पिता की आत्मा की शांति के लिए प्राथना करने लगे। फिर वहां एक बहुत बड़ा तूफान आया, नदी का पानी विपरीत दिशा में बहने लगता है. फिर अचानक पानी की एक बड़ी लहर मृत शरीर के पास आई और सारे अवशेषों को अवशोषित कर लिया।

रविदास जी को उनकी जाति वाले भी आगे बढ़ने से रोकते थे। शुद्र लोग रविदास जी को ब्रह्मण की तरह तिलक लगाने, कपड़े एवं जनेऊ पहनने से रोकते थे। गुरु रविदास जी इन सभी बात का खंडन करते थे, और कहते थे सभी इन्सान को धरती पर समान अधिकार है, वो अपनी मर्जी जो चाहे कर सकता है। उन्होंने हर वो चीज जो नीची जाति के लिए माना थी, करना शुरू कर दिया, जैसे जनेऊ, धोती पहनना, तिलक लगाना आदि. ब्राह्मण लोग उनकी इस गतिविधियों के सख्त खिलाफ थे। उन लोगों ने वहां के राजा नगर मल से रविदास जी के खिलाफ शिकायत कर दी थी। रविदास जी सभी ब्राह्मण लोगों को बड़े प्यार और आराम से इसका जबाब देते थे। उन्होंने राजा के सामने कहा कि शुद्र के पास भी लाल खून है, दिल है, उन्हें बाकियों की तरह समान अधिकार है। रविदास जी ने भरी सभा में सबके सामने अपनी छाती को चीर दिया और चार युग सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग की तरह, चार युग के लिए क्रमश: सोना, चांदी, तांबा और कपास से जनेऊ बना दिया। राजा सहित वहां मौजूद सभी लोग बहुत शर्मसार और चकित हुए और उनके पैर छूकर गुरु जी को सम्मानित किया। राजा को अपनी बचकानी हरकत पर बहुत पछतावा हुआ, उन्होंने गुरु से माफ़ी मांगी. संत रविदास जी ने सभी को माफ़ कर दिया और कहा जनेऊ पहनने से किसी को भगवान् नहीं मिल जाते है। उन्होंने कहा कि केवल आप सभी लोगों को वास्तविकता और सच्चाई को दिखाने के लिए इस गतिविधि में शामिल किया गया है. उन्होंने जनेऊ उतार कर राजा को दे दिया, और इसके बाद उन्होंने कभी भी न जनेऊ पहना, न तिलक लगाया।

इनका जन्म ऐसे समय में हुआ था जब उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में मुगलों का शासन था चारों ओर अत्याचार, गरीबी, भ्रष्टाचार व अशिक्षा का बोलबाला था। उस समय मुस्लिम शासकों द्वारा प्रयास किया जाता था कि अधिकांश हिन्दुओं को मुस्लिम बनाया जाए। संत रविदास की ख्याति लगातार बढ़ रही थी जिसके चलते उनके लाखों भक्त थे जिनमें हर जाति के लोग शामिल थे। यह सब देखकर एक परिद्ध मुस्लिम 'सदना पीर' उनको मुसलमान बनाने आया था। उसका सोचना था कि यदि रविदास मुसलमान बन जाते हैं तो उनके लाखों भक्त भी मुस्लिम हो जाएंगे। ऐसा सोचकर उनपर हर प्रकार से दबाव बनाया गया था लेकिन रविदास तो संत थे उन्हें किसी हिन्दू या मुस्लिम से नहीं मानवता से मतलब था। वैष्णव भक्तिधारा के महान संत स्वामी रामानंदाचार्य जी के रविदास शिष्य थे। संत रविदास तो संत कबीर के समकालीन व गुरूभाई माने जाते हैं। स्वयं कबीरदास जी ने 'संतन में रविदास' कहकर इन्हें मान्यता दी है। राजस्थान की कृष्णभक्त कवयित्री मीराबाई उनकी शिष्या थीं। यह भी कहा जाता है कि चित्तौड़ के राणा सांगा की पत्नी झाली रानी उनकी शिष्या बनीं थीं। वहीं चित्तौड़ में संत रविदास की छतरी बनी हुई है।

152 वर्ष धरती पर बिताने के बाद 1528 में अपनी देह त्याग कर सदा के लिए प्रभु धाम चले गए। इनके सम्मान में भारत की मोदी सरकार ने वाराणसी में करोड़ों रुपये खर्च कर रविदास जी की याद में रविदास पार्क, रविदास घाट, रविदास नगर, रविदास मेमोरियल गेट सहित बहुत से स्मारक बनाये है।इनके जन्म स्थान पर हर वर्ष भारी इनकी जयंती पर भरी मेला लगता हैं। यहाँ पर दुनिया भर से प्रतिदिन हजारों श्रद्धालु पहुँच कर नतमस्तक होते हैं। 

रविदास जी ने सीधे-सीधे अपनी बानी में लिखा कि 'रैदास जन्म के कारने होत न कोई नीच, नर कूं नीच कर डारि है, ओछे करम की नीच' यानी कोई भी व्यक्ति सिर्फ अपने कर्म से नीच होता है। जो व्यक्ति गलत काम करता है वो नीच होता है। कोई भी व्यक्ति जन्म के हिसाब से कभी नीच नहीं होता। संत रविदास ने अपनी कविताओं के लिए जनसाधारण की ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। साथ ही इसमें अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली और रेख्ता यानी उर्दू-फारसी के शब्दों का भी मिश्रण है। रविदासजी के लगभग चालीस पद सिख धर्म के पवित्र धर्मग्रंथ 'गुरुग्रंथ साहब' में भी सम्मिलित किए गए है।

रिपोर्ट- जगदीश शुक्ला

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